#एक_प्रेत_का_कबूलनामा

तुम क्या चाहते हो? मैं इस बीमार समाज पर गर्व करूँ? इस सभ्य समाज पर जो अपनी सभ्यताओं में बर्बरताओं और नफरतों को समेटे हुए है?
नहीं ! मैं इस समाज, इस दुनिया पर गर्व नहीं करता। अरे मुझे तो शर्म आती है। मैं इससे बेइंतहाँ नफरत करता हूँ। मैं एक इंसानी दुनिया में जीना चाहता हूँ, जहाँ इंसान को इंसान होने की कीमत ना चुकानी पड़े। मुझे पैदा होते ही एक धर्म पकड़ा दिया गया, जिससे मेरा ना कोई वास्ता था ना मेरा चुनाव। मुझे चुनने की आजादी नहीं थी, ना समझ थी। अगर होती तो मैंने मजहबों पर थूक दिया होता। एक धार्मिक जानवर होने से अच्छा होता मैं एक अधर्मी इंसान होता।
दूसरा पाप था, जन्म से जाति का पकड़ा दिया जाना। वो भी ना मेरा चुनाव था न मेरी इच्छा। इन दोनों ही दुर्घटनाओं पर मेरा कोई वश नहीं । ना धर्म न जाति। लेकिन दोनों को आधी उम्र तक ढोया है। एक अनचाहे बोझ की तरह। और अब ये बोझ बहुत भारी हो चला है। मेरे ज़ेहन के कंधे दुखने लगे हैं। अब उसकी सामर्थ्य नहीं कि कुछ और दिन भी इसे ढो कर चल सके। मैं अपने दिमाग का शोर सुन सकता हूँ, कराहते हुए, चीखते हुए। यह शोर भयानक है। दिमाग किसी भी घड़ी फट सकता है। उसकी अपनी सीमाएँ हैं, आखिर कब तक और कितना सहन कर सकता है?
जिंदगी, आप के लिए गए फैसलों पर उगी हुई फसल है। मैंने फैसले लिए, डर कर नहीं, हिम्मत से लिए। लड़ना मेरा स्वभाव नहीं, लेकिन लड़ाईयाँ मेरे माथे पर थोप दी गईं। मुझे लड़ना पड़ा है। मैंने दुनिया को यूटोपियन नजरों से देखा, लेकिन मेरी नजर उस हकीकत को देखना नहीं चाहती, जिसने मुझे एक घर होने के अहसास से वंचित रखा है। वो हकीकत सदियों की दासता की हकीकत है, मानसिक गुलामी की हकीकत है। जिसे ना शिक्षा तोड़ पाई है ना पैसा। गुलामी हमारी फितरत में है, हम रूढ़ियों के गुलाम है। वही रूढ़ियाँ जिन्होंने हमारे पूर्वजों के माथे पर शर्मनाक धब्बे लगाए हैं। उन पुरखों के नाम पर हजारों हजार सपनों के कत्ल का इल्जाम है। वो चाहकर भी इससे मुक्त नहीं हो सकते। मैं तुमको याद करके कहता हूँ कि हे पूर्वजों, तुम अपराधी हो। तुम एक बेखौफ, आजाद पीढ़ी को एक आजाद समाज नहीं दे सके।

मैं, शिक्षित भी हुआ, पैसा भी कमाया लेकिन... मैं शर्मिंदा हूँ। इसलिए कि मुझे जिस परिवर्तन की कोशिश करनी चाहिए थी, मैं उसे नहीं कर सका। मैंने जंजीरों को काटने की कोशिश नहीं की, या मुझे इस दर्जा गुलामी का अभ्यस्त बना दिया गया कि मैं आजादी को भूल गया। मैं खूँटे से बँधा हाथी हूँ। जो खूँटा तोड़ भी सकता है और उखाड़ भी सकता है लेकिन उसे जंजीर की नाराजगी का डर है।
किंतु
मैं अभी खत्म नहीं हुआ हूँ। अभी कुछ वक्त बचा है। मेरी साँस, कुछ धीरे ही सही, लेकिन चल रही है। और इससे पहले की मेरी आवाज, मेरा गला रुँध जाए, मैं आखिरी बार जोर से चिल्लाना चाहता हूँ कि " सुनो धर्म और जातियों के ठेकेदारों! मैं तुम्हारे कायदों, उसूलों पर थूकता हूँ। तुम्हारी इन जंजीरों को एक दिन तोड़ डालूँगा। मैं कैदखाने में मरने वाला नहीं हूँ। मेरी जिंदगी भले कैद में गुजरी , लेकिन मेरी मौत आजाद होगी "

ये दुनिया हर चीज की कीमत लगाती है। जिस चीज की जितनी बड़ी कीमत चुकाओगे, यकीन करो, वही चीज तुम्हारे जीवन में रौशनी लाएगी। कीमत तो तय हो चुकी है, मैं अब चुकाने की तैयारी में हूँ। तो हे धर्मध्वजरक्षकों ! अपनी पताकाएँ उतार लो, वरना वो मेरे कदमों में धूल में सनी पड़ी होंगी।

#एक_प्रेत_का_कबूलनामा

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