एक_प्रेत_की_आत्मकथा : 2

"क्या तुम हार गए?" "नहीं, तुम्हे ऐसा क्यूँ लगता है" " मुझे लगता नहीं, मैं जानती हूँ" " ओह... तो तुमने सदियों से चल रहे इस युद्ध की हार का भार मेरे कंधों पर रख दिया है" " नहीं, वो बात नहीं है। तुम तो खून से लथपथ अभी भी मैदान में हो, लेकिन मैं चाहती हूँ तुम हार जाओ, वापस लौट जाओ, और अपने जख्मों को मरहम लगाओ। जिंदा रहना ही जीत है तुम्हारी" " लेकिन... क्या मेरा हारना उन सभी प्रेमियों के युद्ध में हार जाने जैसा नहीं होगा, जिन्होंने सभ्यता की शुरुआत से विद्रोह का झंडा थामा और हताहत होते रहे। मैं तो उनकी उम्मीद बन कर लड़ रहा हूँ। मैंने ये तलवार किसी मरते लहूलुहान जिस्म से ली थी, जो हार कर भागा नहीं था, जमीन पर गिरने तक लड़ा था।" " तो क्या चाहते हो? लड़ कर मरना या मर कर भी लड़ते रहना?" " मैंने जो चाहा वो एक सुनहरा ख्वाब था... लेकिन उसकी हकीकत बेहद डरावनी थी.. उसके लिए मैंने जो तलवार युद्ध में लहूलुहान किसी प्रेमी के हाथ से पकड़ी थी, अब जब मैं गिरूँगा तो मेरे हाथ से कोई और प्रेमी थामेगा। युद्ध जारी रह...