Posts

Showing posts with the label लघुकथा

एक_प्रेत_की_आत्मकथा : 2

Image
"क्या तुम हार गए?" "नहीं, तुम्हे ऐसा क्यूँ लगता है" " मुझे लगता नहीं, मैं जानती हूँ" " ओह... तो तुमने सदियों से चल रहे इस  युद्ध की हार का भार मेरे कंधों पर रख दिया है" " नहीं, वो बात नहीं है। तुम तो खून से लथपथ अभी भी मैदान में हो, लेकिन मैं चाहती हूँ तुम हार जाओ, वापस लौट जाओ, और अपने जख्मों को मरहम लगाओ। जिंदा रहना ही जीत है तुम्हारी" " लेकिन...  क्या मेरा हारना उन सभी प्रेमियों के युद्ध में हार जाने जैसा  नहीं होगा, जिन्होंने सभ्यता की शुरुआत से विद्रोह का झंडा थामा और हताहत होते रहे। मैं तो उनकी उम्मीद बन कर लड़ रहा हूँ। मैंने ये तलवार किसी मरते लहूलुहान जिस्म से ली थी, जो हार कर भागा नहीं था, जमीन पर गिरने तक लड़ा था।" " तो क्या चाहते हो? लड़ कर मरना या मर कर भी लड़ते रहना?" " मैंने जो चाहा वो एक सुनहरा ख्वाब था... लेकिन उसकी हकीकत बेहद डरावनी थी.. उसके लिए मैंने जो तलवार युद्ध में लहूलुहान किसी प्रेमी के हाथ से पकड़ी थी, अब जब मैं गिरूँगा तो मेरे हाथ से कोई और प्रेमी थामेगा। युद्ध जारी रह...

" उसने हाथ उठाया, अपने सिर को एक टोकरी की तरह खोला और ...

Image
" उसने हाथ उठाया, अपने सिर को एक टोकरी की तरह खोला और उसमें से सड़े गले मांस का लोथड़ा निकाल कर मेज पर रख दिया। ये उसका दिमाग था, कुछ हिस्सा गला हुआ और कुछ बेतरह जला हुआ। इस कदर बेरंग कि मक्खियों तक ने उसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। ये उसका रोज का काम था। वो जब भी थका हारा वापस आता, यूँ ही अपने दिमाग को खोल कर रख देता था। इससे उठती आवाजों का शोर धीरे धीरे पूरे कमरे में फैल जाता, दिमाग का एक एक खयाल दीवारों पर पर्दे की तरह फैल जाता। और वो खुद एक जगह पर बैठ कर ये सब निहारता रहता। एक दीवार पर उसकी बेचैनियों के किस्से नुमायाँ होते... जिनसे वो चाह कर भी पार नही पा सकता था। जो जो उस दिमाग के अंदर होता वो मेज से उठ उठ कर कमरे में इधर उधर फैलने लगता। हर खयाल अपने लिए जगह तलाशने लगता। उसका खाली कमरा हरा भरा हो जाता.... एक प्रेमिका जिसकी उम्मीदों को उसने कभी पूरा करने की कोशिश नहीं की। वो अपनी हर अधूरी ख्वाहिश के साथ उसके पास अपने सवालों का जवाब माँगती। एक जलती चिता में चटकती लकड़ियों की आवाज उसके दिमाग से निकल कर चारों ओर फैल जाती । वो लपटों से बचने के लिए एक कोने में दुबक जाता। कई सिरकटे मु...

"आखिरी हिचकी"

Image
(चित्रः इंटरनेट से साभार) " बहुत थक गए हो? आओ बैठो, थोड़ा आराम कर लो" "हाँ , बहुत थक गया हूँ। साँस अब फूलती नही, बल्कि बहुत मुश्किल से आती है। शरीर सुन्न पड़ता जा रहा है। पानी मिलेगा?" "हाँ, बैठो। पानी लाती हूँ" "कितना कठिन रहा है ये सफर, उस रोज से आज तक, जब तुम से मिला था।" "अरे छोड़ो ना, लो पानी पियो। एक अरसे बाद आए हो। इतने निराश और हताश। ये वो इंसान नही है जिसके लिए मैंने इतने रोज इंतजार की भट्टी पर आँखों को जलाया है" "हताशा मेरा शौक तो ना था अंजलि। वक्त ने सब कुछ छीन लिया। एक हारी हुई लड़ाई लड़ते बहुत थक चुका हूँ। काश मेरे जन्म के पहले मुझे मजहब जाति चुनने की आजादी होती। वो ना भी होती तो काश...काश मुझे जन्म लेने या ना लेने का विकल्प ही दे दिया गया होता।"  "जिंदगी बीते हुए वक्त पर झुँझलाने की कथा नही है ना, तुम खुद से झूठ बोल रहे हो। तुम जन्म भी चाहते थे और प्रेम भी। ये भी सच रहा होगा" "झुँझलाहट बेबसी से पैदा होती है" "तुम लाचार भी हो और कमजोर भी। ये तुमसे ना होगा कि लड़ाई क...