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"एक मध्यमवर्गीय कुत्ता" - हरिशंकर परसाई

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एक मध्यमवर्गीय कुत्ता हरिशंकर परसाई मेरे मित्र की कार बँगले में घुसी तो उतरते हुए मैंने पूछा, 'इनके यहाँ कुत्ता तो नहीं है?' मित्र ने कहा, 'तुम कुत्ते से बहुत डरते हो!' मैंने कहा, 'आदमी की शक्ल में कुत्ते से नहीं डरता। उनसे निपट लेता हूँ। पर सच्चे कुत्ते से बहुत डरता हूँ।' कुत्तेवाले घर मुझे अच्छे नहीं लगते। वहाँ जाओ तो मेजबान के पहले कुत्ता भौंककर स्वागत करता है। अपने स्नेही से 'नमस्ते' हुई ही नहीं कि कुत्ते ने गाली दे दी - 'क्यों यहाँ आया बे? तेरे बाप का घर है? भाग यहाँ से!' फिर कुत्ते का काटने का डर नहीं लगता - चार बार काट ले। डर लगता है उन चौदह बड़े इंजेक्शनों का जो डॉक्टर पेट में घुसेड़ता है। यूँ कुछ आदमी कुत्ते से अधिक जहरीले होते हैं। एक परिचित को कुत्ते ने काट लिया था। मैंने कहा, 'इन्हें कुछ नहीं होगा। हालचाल उस कुत्ते का पूछो और इंजेक्शन उसे लगाओ।' एक नए परिचित ने मुझे घर पर चाय के लिए बुलाया। मैं उनके बँगले पर पहुँचा तो फाटक पर तख्ती टँगी दीखी - 'कुत्ते से सावधान!' मैं फौरन लौट गया। कुछ दिनों बाद व

" उसने हाथ उठाया, अपने सिर को एक टोकरी की तरह खोला और ...

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" उसने हाथ उठाया, अपने सिर को एक टोकरी की तरह खोला और उसमें से सड़े गले मांस का लोथड़ा निकाल कर मेज पर रख दिया। ये उसका दिमाग था, कुछ हिस्सा गला हुआ और कुछ बेतरह जला हुआ। इस कदर बेरंग कि मक्खियों तक ने उसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। ये उसका रोज का काम था। वो जब भी थका हारा वापस आता, यूँ ही अपने दिमाग को खोल कर रख देता था। इससे उठती आवाजों का शोर धीरे धीरे पूरे कमरे में फैल जाता, दिमाग का एक एक खयाल दीवारों पर पर्दे की तरह फैल जाता। और वो खुद एक जगह पर बैठ कर ये सब निहारता रहता। एक दीवार पर उसकी बेचैनियों के किस्से नुमायाँ होते... जिनसे वो चाह कर भी पार नही पा सकता था। जो जो उस दिमाग के अंदर होता वो मेज से उठ उठ कर कमरे में इधर उधर फैलने लगता। हर खयाल अपने लिए जगह तलाशने लगता। उसका खाली कमरा हरा भरा हो जाता.... एक प्रेमिका जिसकी उम्मीदों को उसने कभी पूरा करने की कोशिश नहीं की। वो अपनी हर अधूरी ख्वाहिश के साथ उसके पास अपने सवालों का जवाब माँगती। एक जलती चिता में चटकती लकड़ियों की आवाज उसके दिमाग से निकल कर चारों ओर फैल जाती । वो लपटों से बचने के लिए एक कोने में दुबक जाता। कई सिरकटे मु

वो मानता था कि रातें हत्या करती हैं और शामें आत्महत्या।

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उस कयामत की शाम वो अकेला था, खेत में खड़े एक बबूल के सूखे पेड़ की तरह जो दूर से देखा जा सकता था। इस नितान्त अकेलेपन में वो सोच रहा था कि कुछ सवाल अगर वक्त पर हल ना किए जाएँ तो जवाब अपने मानी खो देते हैं और सवाल अपनी प्रासंगिकता। और आज जब वो एक एक कर दुनिया को ढहते देख रहा है, तो इसी शाम किसी सूरज पर सिर पटकने को आतुर हो उठता है। वो इश्क जो अधूरा है, वो खेत जिसकी मेड़ पर उसके पाँव के निशान थे , एक जहर की शीशी जिसकी ढक्कन उसने एक रोज गुस्से में तोड़ दी थी, सब उसके सामने एक फिल्म की तरह चल रहे हैं। एक धुंध सी है जो घिर चुकी है, आगे कुछ दिखाई नहीं देता। कोई शाम इतनी डरावनी भी हो सकती है? उसने इस जगत पर भरोसा खो दिया है, दुनिया से तो पहले ही उठ चुका था। उसे लगता है कि इस आखिरी सी महसूस होती शाम को उस लड़की ने यहाँ होना था। वो जादूगर थी। वो हाथों में जिंदगी भर के चलती थी और आते जाते सरेराह बिखेरते हुए चली जाती थी। वो यहाँ होती तो शायद ये शाम अपनी आत्महत्या को टाल देती। वो मानता था कि रातें हत्या करती हैं और शामें आत्महत्या। इस डर से वो शाम को लम्बा खीच देता जिससे कि रात का सामना कम से कम

"आखिरी हिचकी"

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(चित्रः इंटरनेट से साभार) " बहुत थक गए हो? आओ बैठो, थोड़ा आराम कर लो" "हाँ , बहुत थक गया हूँ। साँस अब फूलती नही, बल्कि बहुत मुश्किल से आती है। शरीर सुन्न पड़ता जा रहा है। पानी मिलेगा?" "हाँ, बैठो। पानी लाती हूँ" "कितना कठिन रहा है ये सफर, उस रोज से आज तक, जब तुम से मिला था।" "अरे छोड़ो ना, लो पानी पियो। एक अरसे बाद आए हो। इतने निराश और हताश। ये वो इंसान नही है जिसके लिए मैंने इतने रोज इंतजार की भट्टी पर आँखों को जलाया है" "हताशा मेरा शौक तो ना था अंजलि। वक्त ने सब कुछ छीन लिया। एक हारी हुई लड़ाई लड़ते बहुत थक चुका हूँ। काश मेरे जन्म के पहले मुझे मजहब जाति चुनने की आजादी होती। वो ना भी होती तो काश...काश मुझे जन्म लेने या ना लेने का विकल्प ही दे दिया गया होता।"  "जिंदगी बीते हुए वक्त पर झुँझलाने की कथा नही है ना, तुम खुद से झूठ बोल रहे हो। तुम जन्म भी चाहते थे और प्रेम भी। ये भी सच रहा होगा" "झुँझलाहट बेबसी से पैदा होती है" "तुम लाचार भी हो और कमजोर भी। ये तुमसे ना होगा कि लड़ाई क

#एक_प्रेत_का_कबूलनामा

तुम क्या चाहते हो? मैं इस बीमार समाज पर गर्व करूँ? इस सभ्य समाज पर जो अपनी सभ्यताओं में बर्बरताओं और नफरतों को समेटे हुए है? नहीं ! मैं इस समाज, इस दुनिया पर गर्व नहीं करता। अरे मुझे तो शर्म आती है। मैं इससे बेइंतहाँ नफरत करता हूँ। मैं एक इंसानी दुनिया में जीना चाहता हूँ, जहाँ इंसान को इंसान होने की कीमत ना चुकानी पड़े। मुझे पैदा होते ही एक धर्म पकड़ा दिया गया, जिससे मेरा ना कोई वास्ता था ना मेरा चुनाव। मुझे चुनने की आजादी नहीं थी, ना समझ थी। अगर होती तो मैंने मजहबों पर थूक दिया होता। एक धार्मिक जानवर होने से अच्छा होता मैं एक अधर्मी इंसान होता। दूसरा पाप था, जन्म से जाति का पकड़ा दिया जाना। वो भी ना मेरा चुनाव था न मेरी इच्छा। इन दोनों ही दुर्घटनाओं पर मेरा कोई वश नहीं । ना धर्म न जाति। लेकिन दोनों को आधी उम्र तक ढोया है। एक अनचाहे बोझ की तरह। और अब ये बोझ बहुत भारी हो चला है। मेरे ज़ेहन के कंधे दुखने लगे हैं। अब उसकी सामर्थ्य नहीं कि कुछ और दिन भी इसे ढो कर चल सके। मैं अपने दिमाग का शोर सुन सकता हूँ, कराहते हुए, चीखते हुए। यह शोर भयानक है। दिमाग किसी भी घड़ी फट सकता है। उसकी अपनी

प्रेम को जीतने के लिए समाज को असहज करने की हिम्मत तो चाहिए ही।

वो जंजीरें बहुत मजबूत होती हैं, जो शरीर से ज्यादा आत्मा को जकड़े रहती हैं। शरीर की जंजीरों से आजादी आसान है, आत्मा की कैद बहुत भयानक और मजबूत है। हम सदियों से कैद हैं, समाज ने जंजीरों को जरूरत बना दिया, हमने उसी रूप में अपना लिया। मानसिक गुलामी को तोड़ना, उस डर से पार पाना है जो तुम्हे सालों से नियम कायदों के नाम पर सिखाया गया है। वाल्टेयर ने कहा था " उन बेवकूफों को आजाद कराना मुश्किल है जो अपनी जंजीरों से मुहब्बत करते हैं" । सही कहा था । अगर तुम्हे सही को सही कहने में, बताने में डर लग रहा है, तो ये उस गुलामी का चरम है। इसे टूटना चाहिए। वक्त किसी का इंतजार नही करता, विद्रोह की कोई उम्र नही होती। वो कभी भी फूटता है, किसी एक विचार से, किसी एक फिल्म से , किसी एक किताब से। आजादी चाहिए... मजहब से... आजादी चाहिए... जाति से। अंतरधार्मिक, अंतरजातीय विवाह, इनको सरकार तो कभी बढ़ावा नही देगी, क्यूँकि उसे कुछ भी मिटते हुए नहीं देखना है। उसे धर्म भी चाहिए और जाति भी। हमें चाहिए तो हमें आगे आकर बदलना होगा। अपनी बात कहते हुए डर नही होना चाहिए, गलत तुम नही हो , गलत वो समाज है जो तुम्ह