वो मानता था कि रातें हत्या करती हैं और शामें आत्महत्या।

उस कयामत की शाम वो अकेला था, खेत में खड़े एक बबूल के सूखे पेड़ की तरह जो दूर से देखा जा सकता था। इस नितान्त अकेलेपन में वो सोच रहा था कि कुछ सवाल अगर वक्त पर हल ना किए जाएँ तो जवाब अपने मानी खो देते हैं और सवाल अपनी प्रासंगिकता।

और आज जब वो एक एक कर दुनिया को ढहते देख रहा है, तो इसी शाम किसी सूरज पर सिर पटकने को आतुर हो उठता है। वो इश्क जो अधूरा है, वो खेत जिसकी मेड़ पर उसके पाँव के निशान थे , एक जहर की शीशी जिसकी ढक्कन उसने एक रोज गुस्से में तोड़ दी थी, सब उसके सामने एक फिल्म की तरह चल रहे हैं। एक धुंध सी है जो घिर चुकी है, आगे कुछ दिखाई नहीं देता। कोई शाम इतनी डरावनी भी हो सकती है? उसने इस जगत पर भरोसा खो दिया है, दुनिया से तो पहले ही उठ चुका था। उसे लगता है कि इस आखिरी सी महसूस होती शाम को उस लड़की ने यहाँ होना था। वो जादूगर थी। वो हाथों में जिंदगी भर के चलती थी और आते जाते सरेराह बिखेरते हुए चली जाती थी। वो यहाँ होती तो शायद ये शाम अपनी आत्महत्या को टाल देती। वो मानता था कि रातें हत्या करती हैं और शामें आत्महत्या। इस डर से वो शाम को लम्बा खीच देता जिससे कि रात का सामना कम से कम करना पड़े। उसकी कायरता इतनी भारी थी कि उसे हत्या से डर था, आत्महत्या से नहीं।

#एक_प्रेत_का_कबूलनामा

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

#एक_प्रेत_का_कबूलनामा

"आखिरी हिचकी"

" उसने हाथ उठाया, अपने सिर को एक टोकरी की तरह खोला और ...