प्रेम को जीतने के लिए समाज को असहज करने की हिम्मत तो चाहिए ही।

वो जंजीरें बहुत मजबूत होती हैं, जो शरीर से ज्यादा आत्मा को जकड़े रहती हैं। शरीर की जंजीरों से आजादी आसान है, आत्मा की कैद बहुत भयानक और मजबूत है। हम सदियों से कैद हैं, समाज ने जंजीरों को जरूरत बना दिया, हमने उसी रूप में अपना लिया। मानसिक गुलामी को तोड़ना, उस डर से पार पाना है जो तुम्हे सालों से नियम कायदों के नाम पर सिखाया गया है।

वाल्टेयर ने कहा था " उन बेवकूफों को आजाद कराना मुश्किल है जो अपनी जंजीरों से मुहब्बत करते हैं" । सही कहा था । अगर तुम्हे सही को सही कहने में, बताने में डर लग रहा है, तो ये उस गुलामी का चरम है। इसे टूटना चाहिए। वक्त किसी का इंतजार नही करता, विद्रोह की कोई उम्र नही होती। वो कभी भी फूटता है, किसी एक विचार से, किसी एक फिल्म से , किसी एक किताब से।

आजादी चाहिए... मजहब से... आजादी चाहिए... जाति से। अंतरधार्मिक, अंतरजातीय विवाह, इनको सरकार तो कभी बढ़ावा नही देगी, क्यूँकि उसे कुछ भी मिटते हुए नहीं देखना है। उसे धर्म भी चाहिए और जाति भी। हमें चाहिए तो हमें आगे आकर बदलना होगा। अपनी बात कहते हुए डर नही होना चाहिए, गलत तुम नही हो , गलत वो समाज है जो तुम्हे ऐसा करना से रोकता है।

अपनी शिक्षा का इस्तेमाल सबसे पहले अपनी जिंदगी अपनी पसंद की खुशहाली के लिए करो, मानव जाति की भलाई इसी में है।
धर्मग्रंथ आग थूकते हैं, उनकी आग में जलने पर आपके प्रेमी रोएँगे, ये समाज ये उसूलों की दुनिया कभी साथ ना देगी। एक जिंदगी है, वो भी आधी तो इस कचरे की बलि चढ़ा ही चुके होगे, जो बची है सुधार लो मेरे दोस्तों।

चैलेंज करो, हर उस बात को चैलेंज करो जो तुम्हारे तर्क को संतुष्ट नही करतीं। वो मान्यताएँ जिनके एक सिरे पर खोखले आदर्श हों, एक तरफ धर्मध्वजा को थामे हुए जातीय दंभ; उन्हे जला डालो, उन्हे ऐसे कुचल डालो कि फिर उनमें से कोई मनु पैदा होने का साहस ना कर सके।

ये दुनिया दोमुँही है। उसके आदर्श खोखले और भोंडे किस्म के अतार्किक नियम कायदे हैं। यहाँ शिक्षा सिर्फ साक्षरता का नाम है। जो शिक्षा आपके दिमाग की परतों को खोलने में कामयाब ना हो सके, उस शिक्षा प्रणाली, उन किताबों को आग लगा देनी चाहिए। अंबेडकर जो जिंदगी भर इस समाज के लिए जूझते रहे, उस समाज ने उनका क्या किया? भगवानों कि मूर्ति के साथ एक फोटो उनकी भी रख दी। क्या यही था उनका लक्ष्य ? नही वो सारी जिंदगी इसी के खिलाफ तो लड़ते रहे थे।
लोहिया के साथ भी यही हुआ, पेरियार के साथ यही हुआ। ये वही जंजीर थी जिसका वॉल्टेयर ने जिक्र किया था। गाँधी की हत्या सिर्फ एक व्यक्ति ने की थी, लेकिन अंबेडकर, लोहिया, पेरियार, फुले की हत्या में हम सब शामिल है। हमारी पीढ़ियों ने उनकी हत्या की है। हमारे हाथों पर , हमारे डी.एन.ए. में इनकी हत्या के दाग हैं। हमें इसके लिए प्रायश्चित करना चाहिए।


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