"नफरतिया हीरो और 28 गाँव की प्रधानी"
बात पुरानी नहीं है, लेकिन हाँ उतनी नई भी नही है। बस हम सब जवान हो रहे थे , तब दिन्नू काका ये कहानी हम सबको सबक की तरह सुनाया करते थे। " लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई" , कहानी के बाद दिन्नू काका जोर देकर ये लाइन बोलते और समझाते हुए रुखसत होते।
तो बात चल रही थी हमारे नफरतिया हीरो की। पास में ही एक गाँव हुआ करता था, नाम ठीक ठीक याद नहीं, वहीं रहता था नफरतिया। घर परिवार का ठीक ठीक कोई नहीं जानता था, कहते हैं कि कई साल पहले सबको छोड़ कर यहीं आ टपका था और फिर यहीं का हो गया। उसका असली नाम नरोत्तम रोगी था, लेकिन धीरे धीरे सारे इलाके में अब उसे नफरतिया हीरो नाम से ही जानते थे। जुबान का कच्चा था लेकिन बहुत वाचाल और हद से ज्यादा मीठा। दो घरों में झगड़ा लगाने में महारत हासिल थी उसे। सजने सँवरने का शौक था ही, एक कंघी दरवाजे पर तो दूसरी कमर में खोंसे रहता। मँहगे कपड़े और चमकता चेहरा, इन दो बातों का खास खयाल रखता था नफरतिया। इसी वजह से इलाके लोग उसे "हीरो" कहा करते थे। हालांकि कोई नहीं जानता था कि इस कपड़े, इस शानो शौकत के लिए पैसा कौन देता था और कहाँ से आता था?
खैर अपनी लुभावनी बातों से वह जल्द ही अपने गाँव का प्रधान बन गया था। दिन्नू काका बताते कि गाँव के कुछ बुजुर्ग उसे पहले ही पहचान गए थे, लेकिन नफरतिया की चमक दमक और नफरत की आग के सामने वो बेबस हो चुके थे। कुछ परिस्थितियों को भाँप कर खामोश हो गए , और जो नहीं हुए उन्हें मार पीट कर गाँव से बाहर भगा दिया गया। नफरतिया ने गाँव में नफरत की दुकान खोल ली थी, और दिन प्रतिदिन थोक के भाव गाँव में बाटता रहता। परिणाम यह हुआ कि उसकी राह के बचे खुचे काँटे भी इसी आग में स्वाहा हो गए। अब आस पास के गाँव तक भी खबरे पहुँचने लगी थीं, खबरी उसके अपने बनाए हुए नौकर थे जो दिहाड़ी पर खबर बाँटते । वही खबरें गाँव से बाहर जाती जो वो पहुँचाना चाहता, बाकी हत्या, लूट, बलात्कार जैसी बदनामी की खबरें उन्हीं गली मुहल्लों तक दफ्न हो जातीं। तो इस तरह हमारे देखते देखते नफरतिया आस पास के गाँवों में अपने नाम और काम की हवाई बुआई कर रहा था।
अब नफरतिया के सपने भी ऊँचे होने लगे थे। उसका फार्मूला काम कर रहा था, 7 ml नफरत सबको सुबह शाम दो और कुछ रंगीन सपनों से बुनी चादर, पूरा गाँव नशे में सोया रहता और नफरतिया अपनी चिलम लेकर राजगद्दी पर ऊँघता रहता। अगर कभी उठता, तो दरबारियों की योजनाएँ सुनता, उनके पैसे कमाने की व्यवस्था करता। एक तरह से वही उसकी रीढ़ थे जो परदे के पीछे उसकी हीरो वाली छवि का रंग रोगन तैयार करते थे।
दिन्नू काका बताते कि हमारे जैसे अठ्ठाइस गाँव हुआ करते थे जिनके अलग अलग प्रधान होते। कुछ अच्छे तो कुछ औसत थे। लेकिन ये सच था कि जहरीला कोई न था। सब मेल जोल, प्रेम भाव से अपना शासन चलाते थे, एक दूसरे से मतभेद भले ही हो लेकिन द्वेष का कोई कारण नहीं था। इन्हीं अठ्ठाइस राज्यों ने मिलकर एक जमाने में एक संघ बनाया था, जिसका एक प्रधान होता था। अठ्ठाइस गाँवों का प्रधान। यह पूरे संघ का सबसे बड़ा राजनैतिक पद हुआ करता था, और अब नफरतिया की नजर इस पर थी। यूँ तो वहाँ पहले से कई दावेदार थे, लेकिन नफरतिया की सपनों की चादर और 7 ml नफरत का नुस्खा किसी के पास नहीं था। और तो और वह इसका सामना करने को तैयार भी नहीं थे । तो धीरे धीरे नफरतिया ने अपने पैर पसारने शुरू किए और साथ ही साथ अपनी सपनों की सतरंगी चादर का दायरा अब अठ्ठाइस गाँवों तक बढ़ाना चालू कर दिया। इस काम में उसके दिहाड़ी खबरी और धनी दरबारी बहुत काम की चीज थे, सारा तिलिस्म उन्हीं के भरोसे पर टिका था। नफरतिया ने उन्हें भी लालच दे दिया था कि "सोचो जब मेरे पास एक गाँव है तो तुम्हारे ये ठाठ हैं, अगर अठ्ठाइस गाँव मेरे हाथ में होंगे, तो तुम आजाद होगे, जो चाहे करो, जितना कमाना है कमाओ।"
खैर खेल शुरु हुआ, और नफरतिया का विजय रथ शुरु से ही सरपट भाग रहा था। उसके खबरियों और दरबारियों के लालची अश्व सामने तिजोरी देख कर दुगनी मेहनत कर रहे थे । एक तरह से विजय पहले ही निश्चित हो चुकी थी, और चुनाव महज एक औपचारिकता। खैर चुनाव की औपचारिकता खत्म हुई और जोर शोर से नफरतिया का राज्याभिषेक पक्का हुआ। अब नफरतिया हीरो अठ्ठाइस गाँव का प्रधान था तो उसकी शानो शौकत, उसके कपड़े, उसके चेहरे पर लगने वाली मँहगी क्रीम पाउडर, सब के सब गुणात्मक रूप में बढ़ गए थे । नफरतिया अब और निखर आया था लेकिन 7 ml फार्मूले से वह अभी भी गाँव के भोले भाले लोगों को चीथड़े पहना हुआ फकीर ही दिखता था।
दिन्नू काका के चेहरे पर कहानी कहते कहते अफसोस की बूँदे ढलक आती थीं। वह आगे बताते कि कुछ दिनों तक सारे गाँवों में जश्न होता रहा, नशे और सपनों की सतरंगी चादर सारे अठ्ठाइस गाँवों पर तनी हुई थी, उसके बाहर किसी की नजर जाती ही नहीं थी जो हकीकत को देख सकता। इसी हाल में सब कुएँ के मेढक की तरह " बस इतना सा ही है संसार" गाते रहते।
और इसी बीच सारे गाँवों में धीरे धीरे संगठित लूट का मॉडल आ चुका था, लोग नींद में सोए हुए थे, और प्रधान ने एक एक करके सारा तामझाम दरबारियों को बेच दिया। न्याय की कोठरी में अब फैसले उसके सचिव छाप कर ले जाते और दे आते। कोठरी में अब सिर्फ एंकर बैठते थे, जो इन छपे हुए पन्नों को पढ़कर सुना देते। इस तरह प्रधान ने धीरे धीरे सारे गाँव दरबारियों को बेच दिए और अपने खबरियों से कह दिया कि जाओ खबरें फैलाते रहो कि हमारे गाँव दुनिया के सबसे श्रेष्ठ गाँव बन रहे हैं। हम अपनी जान की बाजी लगाकर दिन रात काम कर रहे हैं। खबरी अपनी निष्ठा निभाते और दिन रात प्रधान की बातों को जा जाकर सुनाते रहते।
आखिर.... नशे की भी एक मियाद होती है और सपने की एक हद। दोनों एक न एक दिन टूटते ही हैं। लोग अब नशे के अभ्यस्त होने लगे थे, उन्हें उसका असर होना कम हो गया था। चादर के सपने भी बीच बीच में बिखरने लगे थे, चादर में छेद हो गए थे। इसी छादर के छेदों से जब गाँव के लोगों को रौशनी नजर आई तो उन्हें कुछ कुछ हकीकत दिखनी शुरू होने लगी थी। चादर का बिखरना, नफरतिया के तिलिस्म का बिखरना था। इसी के सहारे तो टिका था वो "हीरो"।
चादर के छेद दिन प्रतिदिन बड़े होते जा रहे थे और रौशनी भी बढ़ने लगी थी। प्रधान की हकीकत लिबास के बाहर अधनंगी दिखने लगनी थी। इस का असर कुछ यूँ हुआ कि गाँवों के कुछ बुजुर्ग और युवा इस हकीकत को लोगों के सामने लाने लगे। जब एक एक कर भेद खुलने शुरु हुए तो नफरतिया के कारनामों से सारे गाँव ठगे से अवाक् खड़े थे। सभी लोगों में आग की तरह खबर फैल गई कि उठो उठो, सब जाग जाओ, नफरतिया ने गाँव के गाँव बेच दिए, हम सबको बरबाद कर दिया, कुछ भी नहीं छोड़ा। इस खबर को सुनकर, बुजुर्ग, युवा , महिला, बच्चे व्याकुल होकर गुस्से में प्रधान के घर की ओर एक साथ बढ़ने लगे। इतनी बड़ी संख्या आजादी के बाद शायद ही किसी ने देखी हो। एक विशालकाय गुस्से में पागल भीड़ अब प्रधान के आलीशान मकान की ओर बढ़ रही थी। उस गोल पहिया नुमा मकान के दरवाजे को तोड़ दिया गया और सभी लोग प्रधान को यहाँ वहाँ तलाशने लगे।
लेकिन.... नफरतिया.... "नफरतिया अपने दरबारियों के साथ झोला उठाकर पहले ही निकल चुका था" । भीड़ बदहवास होकर इधर उधर उसे तलाश करती रही, लेकिन वो न हाथ आना था, न आया।
"तो क्या समझे बच्चों?" दिन्नू काका बोले...... "लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई"
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