इस देश में भी दो देश हैं.....


इस देश में भी दो देश हैं। एक गरीब का और दूसरा अमीर का। दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। लॉकडाउन दोनो के लिए समस्या लेकर आया है। एक के पास खा कर "वॉक" करने की सहूलियत नहीं है तो दूसरे के पास खाने को ही नहीं है।

और एक वो वर्ग है जिसमें हम हैं। इनसे एक दर्जा ऊपर, एक निश्चित आय वाले। यह वर्ग ही सबसे ज्यादा एहसानफरामोश है, क्रूर है, संवेदनहीन है। हमारा ही दिमाग जाति और धर्म के खेल खेलता है। हम एजेंडा के पहले रिसीवर हैं और पहले उग्र रिएक्टर भी। हमारे लिए देश के नाम पर वह सब जायज है जिससे हमारी चौखट तक आए बिना कुछ भी होता हो।
दूसरी वजह है हमारा छद्म भ्रम। हम अपने देश की तकरीबन एक तिहाई जनसंख्या के खिलाफ हैं, उनकी समस्याओं से अनभिज्ञ हैं। उनकी भूख हमें व्याकुल नहीं करती, हमें धर्म ज्यादा खतरे में लगता है। ये भ्रम है कि आग हम तक नहीं आएगी, हम तो आग लगाने वाले लोग हैं। लेकिन जहर जब बह निकलता है तो वह अपना पराया नहीं देखता।
हम 10 खाने के पैकेट बाँट कर फोटो खींच लेते हैं, हमारा अहम तुष्ट हो जाता है। हम साबित कर लेते हैं कि हम माँगने की नहीं, देने की स्थिति में हैं।। ये भले बुरा लगे, लेकिन यह आत्मप्रचार की भूख है बस।
लेकिन..... लेकिन हमारा काम खाना बाँटना नहीं है, हमारा काम यह सुनिश्चित करना भी है कि अगर देश की गोदामों में अनाज सड़ रहा है, तो किसकी जिम्मेदारी है कि वह रोते बिलखते बच्चों और परिवारों तक पहुँचाए। लेकिन नहीं, अगर व्यवस्था दुरुस्त होगी तो हमें आत्मप्रचार के अवसर का क्या होगा?

हम अपराधी हैं, आप माने न मानें, इस देश का मध्यमवर्ग और निम्न मध्यमवर्ग अपने देश के मजदूरों, गरीबों और किसानों का अपराधी है। जबकी हकीकत यह है कि हम उनसे आर्थिक रूप से बहुत आगे नहीं है, बस एक झटका लगेगा और हम उनकी जमीन पर उन्हीं की तरह होंगे।

बमुश्किल चंद अमीर और राजनैतिक लोग इस देश में एजेंडा सेट करते हैं, उनके नीचे वाले इसे हवा देते हैं और फिर हम .... हम "मिडल क्लास" इस देश को उसके बुनियादी हक हकूक से महरूम कर देते हैं।

लॉकडाउन से आती तस्वीरें देखिए... आप भी मानेंगे... इस देश में स्पष्टतः तो देश हैं.... एक अमीर का और एक गरीब का। 

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