"गिर्दा की वैचारिक विरासत का सिमट जाना"

"गिर्दा की वैचारिक विरासत इस कदर कैसे सिमट गई" 

एक बार सूबे के प्रसिद्ध रंगकर्मी बृजेनलाल साह जी ने कहा था कि " मेरी विरासत का वारिस गिर दा है" । गिर दा जिसके अंदर पहाड़ बसता था, रगों में भागीरथी, अलकनंदा, काली , सरयू बहती थी। जीते जागते पहाड़ पुरूष थे गिर दा। लेकिन ऐसा क्यूँ हुआ कि बृजेनलाल साह को तो वारिस मिल गया लेकिन गिर दा को समाज धीरे धीरे खा गया, उनके विचारों को उपेक्षित कर दिया गया। गिर दा की इतनी समृद्ध विरासत आखिर लावारिस क्यूँ रह गई?

उत्तराखंड राज्य आंदोलन को याद किया जाए तो हम लोग जो उस वक्त होश सँभाल रहे होंगे, आज जब आंदोलन की कहानियाँ सुनते हैं और जब जब उसमें नैनीताल का जिक्र आता है तो अपने अपने आप एक छवि दिमाग में उतराने लगती है ... एक दुबला पतला शरीर जो बुढ़ापे से लड़ते हुए लाउडस्पीकर कंधे पर टाँग कर आंदोलन का बुलेटिन पढ़ रहा है या फिर वो अपना हुड़के की थाप पर मस्त जनगीत गा रहा है। यही छवि है जो गिरीश तिवाड़ी का आवरण तोड़कर गिर्दा बनती है। गिरीश तिवाड़ी पैदा होते रहते हैं लेकिन उनमें से गिर्दा होना साहस, संस्कृति और वैचारिक समृद्धि का उत्कृष्ट मेल होना है।

गिर्दा अपने वैचारिक पहलू में बहुत स्पष्ट थे। उन्हे एक विचारधारा में बाँधना सम्भव ही नही है। यूँ तो वो वामपंथ के नजदीक मालूम पड़ते हैं लेकिन उनके व्यंग्य बाणों से वह भी अछूता नही रहा, वो जनपक्षधरता के मामले में किसी को नहीं बख्शते थे।  
खैर गिर्दा पर अगर बात करनी शुरु की जाए तो उसके लिए  रजिस्टर भर जाएँगे, लेकिन उनके व्यक्तित्व को आप फिर भी सम्पूर्ण वर्णित नहीं कर सकते।  आज सवाल दूसरा है कि आखिर उनकी अपनी पीढ़ियों ने उन्हें यूँ तिरस्कृत क्यूँ कर दिया? क्या वजह है कि नई पीढ़ी तक वो नहीं पहुँच पाए? पीढ़ी दर पीढ़ी उनको विलुप्त क्यूँ किया जा रहा है? 
इन सब सवालों का जवाब एक ही है। दरअसल गिर्दा प्रत्येक विचारधारा, प्रत्येक सरकार को असहज करते हैं। उनके विचार सवाल उठाते हैं। जहाँ गिर्दा का नाम आएगा वहाँ ये बहस भी जीवित हो जाएगी कि आखिर पहाड़ की खरीद फरोख्त से आम जनता का नफा नुकसान क्या है? पहाड़ की नदियाँ अपने नसीब पर रो रही हैं, तो इसका जिम्मेदार कौन है?  हमारे जंगल, हमारी जमीन  कैसे साजिशन पहाड़ से हस्तांतरित हो कर उद्योगपतियों के हाथों में सौंपी जा रही है? गिर्दा के हुड़के की आवाज जनता को उद्वेलित करेगी ही और इससे सारे हुक्मरान असहज होंगे। अगर आज ही के हालात को देखें तो गिर दा की बात की एक बानगी देखिए

"हालते सरकार ऐसी हो पड़ी तो क्या करें,
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें। 
गोलियाँ कोई निशाने बाँध कर दागीं थी क्या, 
खुद निशाने पे पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें"। 

ये जो तंज है ये शायद ही आज की सरकार को बर्दाश्त होता। 

दरअसल गिर दा का पूरा व्यक्तित्व ही प्रतिरोध की मिट्टी का है। इसी मिट्टी ने उन्हें सरकारों का शत्रु बना दिया। 

इस तरह सरकारों ने लगातार उनको नेपथ्य में ढकेला। सब जानते थे कि अगर इस विचार और पहाड़ी अस्मिता को वैचारिक धार मिल गई तो पहाड़ों, जंगलों और नदियों का यह अंधाधुंध दोहन संभव नहीं हो पाएगा। 

सरकारों के लिए ये आसान रहा है कि युवाओं को उन्माद में लगाओ, उनको उनकी जड़ों से काट दो। और वो सफल रहे। गिर्दा की विरासत हार गई। गिर्दा का विचार हार गया। उदाहरण देखने के लिए दूर नहीं जाना पड़ेगा। आप पंचेश्वर बाँध आंदोलन को देख लीजिए, टिहरी के विस्थापितों का पुनर्वास पूरा नही हो सका और यहाँ फिर से उजाड़ने के लिए तैयारियाँ हो गई। यहाँ का युवा पाकिस्तान के पुतले पूरे प्रदेश भर में जला सकता है लेकिन वो अपने भाई बहनों के लिए खड़ा नही हुआ जो अपने ही गाँवों से उजड़ने को मजबूर हैं। यही समय गिर्दा याद आता है। दरअसल गिर्दा जैसे लोग एक दरख्त की तरह होते हैं जो जनता को सरकारी सूरज की आग से झुलसने से बचाते हैं। 

सरकारों के षड्यंत्र सफल हुए हैं। हम संघर्ष करना भूल चुके हैं। हमारा प्रतिरोध सरकारजनित होता है समस्याजनित नहीं। नीलाम होते पहाड़, जंगल और नदियाँ सरकार की सफलता है और गिर्दा की हार। 
हमें शोक मनाना चाहिए। हम सब अपराधी हैं। हमने एक अमर पर्वतपुत्र को अपमानजनक मौत दी है। गिर्दा की विरासत पर इतने खतरे थे कि उनकी संतानों को बहुत सचेत होकर लड़ते रहना था। लेकिन हम सरकारी खिलौने बन गए और अपने पूर्वज की बात को जिंदा नहीं रख सके। हमें इस अपराध का परिणाम सदियों तक झेलना होगा। 

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