"भारत में मार्क्स से पहले ज्योतिबा की जरूरत है"

"भारतीय समाज में मार्क्स से पहले सैकड़ों हजारों ज्योतिबा की जरूरत है" वैश्विक संदर्भों में कई बार ये सवाल उठता है कि आखिर भारत में इतनी असमानता और गरीबी होने के बावजूद, ये तबका वर्ग संघर्ष की कसौटी पर एकजुट क्यों नहीं हो सका? इतनी बड़ी संख्या में मजदूर और गरीब आखिर अछूते क्यों रह गए, उनकी सांगठनिक शक्ति प्रबलता से सामने क्यूँ नहीं आई। इसका एक सीधा सा जवाब है भारतीय समाज की संरचना जो जातीय और लैंगिक असमानता से बहुत गहराई तक ग्रसित रही है। ऐसी परिस्थितियों में वर्ग के अंदर वर्ग का जो चक्रव्यूह था, उसे भेदना सिर्फ मार्क्सवाद से संभव ही नहीं था। यहाँ जातीय तौर पर बँटा समाज, स्त्री पुरुष असमानता में बँटा समाज इस परिकल्पना को समझने के लिए ना तब तैयार था और ना अब है। कल्पना कीजिए कि अट्ठारहवीं शताब्दी का वो समय, जब देश में गरीबी, अशिक्षा सम्पूर्ण देश में फैली हुई थी, उस समय भी एक इंसान था जो ये सोच रहा था कि समाज में सबको समानता का अधिकार होना चाहिए, स्त्री और पुरुष में भेद नहीं होना चाहिए। ये थे महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले। फूलों का कारोबार करने वाले माली परिवार में जन...