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The Bear Nad the Girl

 It is a story of a few years ago, there was a city, a small town which was situated in the middle of a forest. No one knew how a city was built in the midst of such a dense forest. It was surrounded by dense neem and rosewood trees which looked like a wall. This city was cut off from the whole world, there were no vehicles, no big buildings, no noise, no electric wires. There was a different world here which was completely governed by the laws of nature and its given things. As soon as it got dark evening, to fulfill the need of light, lakhs of fireflies used to come down in the city which would have lit up the whole city. It got so bright that it felt like a day. Mother Nature used to send someone or the other for every such work and the city would go on. Human beings were a minority in this small town, the surrounding forest was full of dangerous animals, but till date it had not happened that any human in the city had to fall prey to them. In the heart of the city was Roshni's

एक प्रेत का कबूलनामा..

 मैं लकीरें मिटा रहा हूं  , जो वक्त ने खींची हैं और एक भ्रम फैला दिया है कि वक्त जो लकीरें खींच देता है वो मिटाई नहीं जा सकतीं। मैं उसी के लिए इस ब्रह्माण्ड की यात्रा पर निकला हूं। घर से गांव, गांव से शहर, शहर से देश देश से पृथ्वी और अब इस पृथ्वी को पार कर मैं अंतरिक्ष के इस असीमित आंगन में आ खड़ा हुआ हूं। मैं अपने सामने एक अंधकार का द्वीप देख रहा हूं जिसके ठीक बीच में फैली हुई आकाशगंगा दूध की नदी की तरह नजर आ रही है। इसके एक तट पर बैठा हुआ मैं एक पराजित योद्धा , अंतरिक्ष के तुम महावीरों का आह्वान कर रहा हूं कि आओ, तुम्हे इस ब्रह्मांड के अनगिनत रौशन सितारों की सौगंध, जिन्हे कृष्ण-तालों में झोंक दिया गया, उस नाकाम मोहब्बत की कसम, जिसने मैरी लेक्सी (टाइटन की प्रेमिका) को आकाशगंगा में डूबने पर मजबूर कर दिया और उसकी लाश, उसकी लाश आज भी इस अंतरिक्ष की किसी नदी में तैर रही होगी। मैरी मर सकती है लेकिन उसकी लाश एक धब्बे की तरह इस  जगमगाते संसार का मुंह दागदार बनाए रखेगी....... मैं टाइटन, अपने सारे अपराधों के साथ, इस अंतरिक्ष के एक एक क्षुद्रग्रह पर एक गाथा की तरह दर्ज हो रहा हूं कि आने वाली पी

ईश्वर के बजाय डार्विन पर भरोसा करने वाले भगत सिंह को ये देश स्वीकार कर सकता है क्या?

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भगत सिंह.... मैं तो नाम लेने में डरता हूँ। इसलिए नहीं कि उनकी तस्वीर को उनके विचारों पर ढँक दिया गया है, इसलिए कि उनकी फाँसी को सिर्फ नसें फड़काने का औजार बना दिया गया है, उनके विचारों के सामने आने का मतलब है वर्ग संघर्ष की एक जायज बहस की शुरुआत। और समय ऐसा है साहब कि हत्याएँ उचित हैं लेकिन बहस के लिए स्थान बचा ही नहीं है। भगत सिंह जब कहते हैं कि "धर्म के उपदेशकों और सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेल, फांसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं", तो वह सबके निशाने पर होते हैं। अब सोचिए कि अगर भगत सिंह आज यह बोल दें, तो उन्ही के फोटो लगाकर उन्माद में अंधे लोग उनकी क्या हालत करेंगे। यही राजनीति है। वह सुविधानुसार अपने नायकों को इस्तेमाल करती है। भगत सिंह का सम्पूर्ण चिंतन साम्यवाद पर आधारित है। वह मार्क्स को मानते थे। हालांकि उन्होने लेनिन को सच्चे नेता के तौर पर  मान्यता दी जिन्होंने बोल्शेविक क्रांति को सफलता पूर्वक अंजाम दिया था। आज भगत सिंह होते तो उनके इन विचारों पर क्या प्रतिक्रिया होती, आप खुद अंदाजा लगाइए। एक सबसे महत्वपूर्ण बात.... भगत सिंह का मानना था क

"गिर्दा की वैचारिक विरासत का सिमट जाना"

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"गिर्दा की वैचारिक विरासत इस कदर कैसे सिमट गई"  एक बार सूबे के प्रसिद्ध रंगकर्मी बृजेनलाल साह जी ने कहा था कि " मेरी विरासत का वारिस गिर दा है" । गिर दा जिसके अंदर पहाड़ बसता था, रगों में भागीरथी, अलकनंदा, काली , सरयू बहती थी। जीते जागते पहाड़ पुरूष थे गिर दा। लेकिन ऐसा क्यूँ हुआ कि बृजेनलाल साह को तो वारिस मिल गया लेकिन गिर दा को समाज धीरे धीरे खा गया, उनके विचारों को उपेक्षित कर दिया गया। गिर दा की इतनी समृद्ध विरासत आखिर लावारिस क्यूँ रह गई? उत्तराखंड राज्य आंदोलन को याद किया जाए तो हम लोग जो उस वक्त होश सँभाल रहे होंगे, आज जब आंदोलन की कहानियाँ सुनते हैं और जब जब उसमें नैनीताल का जिक्र आता है तो अपने अपने आप एक छवि दिमाग में उतराने लगती है ... एक दुबला पतला शरीर जो बुढ़ापे से लड़ते हुए लाउडस्पीकर कंधे पर टाँग कर आंदोलन का बुलेटिन पढ़ रहा है या फिर वो अपना हुड़के की थाप पर मस्त जनगीत गा रहा है। यही छवि है जो गिरीश तिवाड़ी का आवरण तोड़कर गिर्दा बनती है। गिरीश तिवाड़ी पैदा होते रहते हैं लेकिन उनमें से गिर्दा होना साहस, संस्कृति और वैचारिक समृद्धि का उत्

"नफरतिया हीरो और 28 गाँव की प्रधानी"

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बात पुरानी नहीं है, लेकिन हाँ उतनी नई भी नही है। बस हम सब जवान हो रहे थे , तब दिन्नू काका ये कहानी हम सबको सबक की तरह सुनाया करते थे। " लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई" , कहानी के बाद दिन्नू काका जोर देकर ये लाइन बोलते और समझाते हुए रुखसत होते। तो बात चल रही थी हमारे नफरतिया हीरो की। पास में ही एक गाँव हुआ करता था, नाम ठीक ठीक याद नहीं, वहीं रहता था नफरतिया। घर परिवार का ठीक ठीक कोई नहीं जानता था, कहते हैं कि कई साल पहले सबको छोड़ कर यहीं आ टपका था और फिर यहीं का हो गया। उसका असली नाम नरोत्तम रोगी था, लेकिन धीरे धीरे सारे इलाके में अब उसे नफरतिया हीरो नाम से ही जानते थे। जुबान का कच्चा था लेकिन बहुत वाचाल और हद से ज्यादा मीठा। दो घरों में झगड़ा लगाने में महारत हासिल थी उसे। सजने सँवरने का शौक था ही, एक कंघी दरवाजे पर तो दूसरी कमर में खोंसे रहता। मँहगे कपड़े और चमकता चेहरा, इन दो बातों का खास खयाल रखता था नफरतिया। इसी वजह से इलाके लोग उसे "हीरो" कहा करते थे। हालांकि कोई नहीं जानता था कि इस कपड़े, इस शानो शौकत के लिए पैसा कौन देता था और कहाँ से आता था?

एक_प्रेत_की_आत्मकथा : 2

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"क्या तुम हार गए?" "नहीं, तुम्हे ऐसा क्यूँ लगता है" " मुझे लगता नहीं, मैं जानती हूँ" " ओह... तो तुमने सदियों से चल रहे इस  युद्ध की हार का भार मेरे कंधों पर रख दिया है" " नहीं, वो बात नहीं है। तुम तो खून से लथपथ अभी भी मैदान में हो, लेकिन मैं चाहती हूँ तुम हार जाओ, वापस लौट जाओ, और अपने जख्मों को मरहम लगाओ। जिंदा रहना ही जीत है तुम्हारी" " लेकिन...  क्या मेरा हारना उन सभी प्रेमियों के युद्ध में हार जाने जैसा  नहीं होगा, जिन्होंने सभ्यता की शुरुआत से विद्रोह का झंडा थामा और हताहत होते रहे। मैं तो उनकी उम्मीद बन कर लड़ रहा हूँ। मैंने ये तलवार किसी मरते लहूलुहान जिस्म से ली थी, जो हार कर भागा नहीं था, जमीन पर गिरने तक लड़ा था।" " तो क्या चाहते हो? लड़ कर मरना या मर कर भी लड़ते रहना?" " मैंने जो चाहा वो एक सुनहरा ख्वाब था... लेकिन उसकी हकीकत बेहद डरावनी थी.. उसके लिए मैंने जो तलवार युद्ध में लहूलुहान किसी प्रेमी के हाथ से पकड़ी थी, अब जब मैं गिरूँगा तो मेरे हाथ से कोई और प्रेमी थामेगा। युद्ध जारी रह

ऑगस्ट लैंडमेसर: इश्क की ताकत और प्रतिरोध का साहस।

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ऑगस्ट लैंडमेसर: इश्क की ताकत और प्रतिरोध का साहस। इस तस्वीर को ध्यान से देखिए। कुछ घटनाएँ होती हैं जिन्हें समय दर्ज कर रहा होता है। चारों तरफ खड़े लोग नाजी सलाम कर रहे हैं और बीच में खड़ा है ऑगस्ट लैंडमेसर, बेपरवाह और बेधड़क अंदाज में। ये तस्वीर अपने आप में एक पूरी किताब है, पूरा बयान है कि जब आप अकेले हैं और सारी भीड़ दूसरी तरफ है, फिर भी सच सुनने और कहने का साहस खत्म नहीं होना चाहिए। यह एक कार्यक्रम की तस्वीर है जहाँ ऑगस्ट काम करता था। एक जहाज बनाने वाली कंपनी के नए जहाज की लांचिंग का कार्यक्रम। जब सब कर्मचारी नाजी सैल्यूट कर रहे हैं, वहाँ ठीक बीच में ऑगस्ट लैंडमेसर अपने बेखौफ अंदाज में सामान्य खड़ा है। जो हिटलर के जर्मनी को जानते हैं, उन्हें अंदाजा होगा की तत्कालीन जर्मनी में ये कितना बड़ा कदम होगा। करीबन पचपन साल बाद जब ये तस्वीर Die Zeit में छपी तो इसने सारी दुनिया में तहलका मचा दिया। यह अभूतपूर्व था कि कोई ऐसा भी था जो उस दौर में भी अपने विचार, अपनी मान्यता के साथ खड़ा था। वो भीड़ नहीं था, अकेला था लेकिन कई सौ साल बाद उसकी तस्वीर देखकर उसके जैसे हजारों लोग तैयार हो रहे थे।